Friday, February 08, 2008

मंज़िल !!


मंज़िल मेरी क्या ?
समझ नहीं पाया
राह मेरी क्या ?
सोच नहीं पाया
यूँ ही
बेमकसद बेमंज़िल
ज़िन्दगी की
नाख्त्म राहों में
चला जा रहा हूँ
हालात के हाथों
खुद को सौंप कर
ज़िन्दगी से अब तक
कुछ हासिल नहीं कर पाया
पता नहीं
कब समझ पाऊँगा ?
मेरी मंज़िल क्या
कब सोच पाऊँगा ?
मेरी राह क्या
कब जान पाऊँगा ?
वक़्त की कीमत को
जो गुज़र रहा है
वक़्त
वो पलट कर न आएगा
कुछ कर पाने का
ज़िन्दगी से
कुछ
हासिल कर पाने का
यही वक़्त है
जो खो रहा हूँ
मैं
कब समझ पाऊँगा ?

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